गीता जयंती विशेष डॉ. कृष्ण के आर्य
विराट रूप ही भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप
‘मार्गशीर्ष की अमावस्या को दिया था गीता उपदेश’
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| Jagat Kranti |
वैश्विक जनमानस की जीवनधारा को प्रभावित करने में गीता की अह्म भूमिका है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक ग्रन्थ है, जिसकी व्यवहारिकता चिरकाल तक बनी रहेगी। कुरुक्षेत्र की धरा पर हुआ परस्पर संवाद कितना गहन था, इसका अनुमान अर्जुन की शंकाओं पर श्रीकृष्ण द्वारा की गई व्याख्या से ही स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी संवाद को गीता कहा गया है। अर्जुन का मोहपाश कितना मोहित करने वाला था, उसे सहज ही जाना तो जा सकता है। परन्तु उसे समझने से जीवन के लक्ष्य बदल जाते हैं।
अर्जुन का वह एक प्रश्न, जिसे श्रीकृष्ण को अढ़ाई घड़ी का उपदेश देने के लिए विवश कर दिया, वह क्या था ? अर्जुन ने कहा कि
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।।
रणभूमि में युद्ध की इच्छा से खड़े बन्धु-बांधवों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो गए हैं। मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्पन पैदा होने लगी है। हे वासुदेव! मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष खिसका जा रहा है, त्वचा जल रही है, मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ। हे मधुसूदन! पृथ्वी का राज्य तो क्या है, मैं तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इन्हें मारना नहीं चाहता हूँ।
ऐसी स्थिति का निर्माण कब हुआ अर्थात् वह कौन सा दिन था जब अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के मध्य इस विषय पर वार्तालाप हुई। वही दिवस गीता जयंती का दिन था। उसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान का संदेश दिया। महाभारत युद्ध की यह अनूठी घटना थी, परन्तु इसके लिए परिस्थितियां कब, क्यों और कैसे बनी। इसे जानने की अभिलाषा सभी के मन में उठ रही होंगी।
शांति से युद्ध की ओर-
हस्तिनापुर के दूत संजय ने विराटनगर पहुंच कर पांडवों को महाराज धृतराष्ट्र का संदेश सुनाते हुए कहा कि आप जहाँ भी हो वहीं स्वस्थ रहो। उन्होंने कहा कि अपने सगे-सम्बन्धियों को मारने से तो भीख मांग कर जीवित रहना अच्छा है। इस घटना के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण ने पांडव सभा में कहा कि मैं कृष्ण, दोनों पक्षों के कल्याण के लिए कौरव सभा में जाऊँगा और एक शान्तिदूत बन कर शान्ति वार्ता करूँगा। हालांकि संजय की बात सुनकर मैं कौरवों के व्यवहार के विषय में जान चुका हूँ, फिर भी मैं हस्तिनापुर जाकर कौरवों की सभा में दुर्याेधन के अच्छा और बुरा होने के सभी संशय दूर कर दूँगा। वहाँ पहुँच कर मैं तनिक भी त्रुटि किए बिना समस्त कौरवों और पांडवों के कल्याण और सन्धि स्थापना का प्रयास करूँगा।
राजसभा में पहुंचने पर भीष्म, द्रोण तथा महाराज धृतराष्ट्र सहित अन्य महानुभावों ने अपने आसनों से खड़े होकर श्रीकृष्ण का स्वागत किया। वहाँ विराजमान अनेक देशों के राजाओं ने भी श्रीकृष्ण का अभिवादन किया और उन्हें टकटकी लगाकर निहारने लगे। सभा में सन्नाटा छा गया और सभी श्रीकृष्ण के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसके पश्चात् दुन्दुभि के समान गम्भीर स्वभाव वाले श्रीकृष्ण ने बोलना आरम्भ किया। उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरूआत ठीक उसी प्रकार से की जैसे कोई वरिष्ठ व्यक्ति किसी कार्य के लिए बच्चों को मनाता है।
श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की प्रशंसा करते हुए कहा कि कालातीत से समस्त राजाओं में कुरुवंश श्रेष्ठ रहा है। यहाँ शास्त्र और सदाचार का पालन किया जाता रहा है। यहाँ कृपा, अनुकम्पा, करुणा, विनम्रता, सरलता, क्षमा और सत्य आदि के जो गुण रहे हैं, वह अन्य राजाओं में नहीं रहे। हे राजन्! ऐसे उत्तम गुणयुक्त एवं प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न होकर भी आपके कारण हुए किसी अनुचित कार्य को कैसे उचित कहा जा सकता है।
श्रीकृष्ण ने अपने विस्तृत वक्तव्य के दौरान कहा कि जहाँ अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य का हनन होता है, वह सभा नष्ट हो जाती है। पांडव धर्म के मार्ग पर चलकर अपना राज्य लौटाने का अनुरोध कर रहे हैं। इसलिए अपने अनुज पुत्रों को पैतृक भाग देकर उनका मनोरथ पूर्ण करें। राजन् ! इससे पांडवों और कौरवों दोनों का समान रूप से कल्याण होगा। इस तरह से श्रीकृष्ण ने उन्हें युद्ध की भयावह स्थिति का भी आभास करवाया। परन्तु दुर्योधन द्वारा संधि प्रस्ताव न मानने पर भगवान श्रीकृष्ण विरक्त हो गए सभा से बाहर आ गए और न चाहते हुए भी शांति प्रस्ताव से युद्ध की स्थिति बन गई।
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| Dainik Tribune |
गीता उपदेश स्थल-युद्ध के लिए दोनों सेनाएं कुरुक्षेत्र की धरा पर एकत्र होने लगी। युद्धभूमि के पश्चिम की तरफ मुहं करके पूर्व दिशा में कौरव सेना खड़ी हो गई और पूर्व में मुख करके पश्चिम दिशा में पांडव सेना युद्ध के लिए डट गई। इस विषय पर उद्योगपर्व में दिया है कि
पञ्चयोजनमुत्सृज्य मंडलम् तद्रणाजिरम्।
सेनानिवेशास्ते राजन्ना विशञ्छतसंघशः।।
अर्थात् युद्ध के लिए दोनों सेनाओं के शिविरों के मध्य पांच योजन (लगभग 64 वर्ग किलोमीटर) का घेरा छोड़कर सौ-सौ की संख्या वाली श्रेणीबद्ध छावनियां डाल दी गईं। युद्धभूमि में प्रवेश के लिए चार द्वार बनाए गए और प्रत्येक द्वार पर एक-एक यक्ष को द्वारपाल रखा गया।
सम्भवतः उस समय यह स्थान दोनों सेनाओं के मध्य और एक किनारे पर रहा होगा। इस स्थान पर अर्जुन और श्रीकृष्ण के मध्य हुई वार्त्ता को ही गीता उपदेश कहा गया है। मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में इसे ज्ञानगीत की संज्ञा दी हैं। वर्तमान में वह स्थान ज्योतिसर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है, जो कुरुक्षेत्र बस अड्डा से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
गीता उपदेश तिथि-
कौरव सभा में हुई ख़ीचतान के उपरान्त भगवान श्रीकृष्ण और कर्ण की एकान्त में भेंट हुई। श्रीकृष्ण ने कर्ण के सामने प्रस्ताव रखा कि पांडव उसके भाई है। अतः वह पांडवों की ओर से युद्ध करें परन्तु कर्ण ने इसे ठुकरा दिया। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि हे कर्ण ! मेरा प्रस्ताव तुम्हें स्वीकार नहीं है और तुम मेरे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी का राज्य भी ग्रहण नहीं करना चाहते हो। इसलिए तुम आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म और कृपाचार्य से जा कर कहना कि इस समय सौम्य मार्गशीर्ष मास चल रहा है। इसमें जलाने की लकड़ियां और घास सुगमता से प्राप्त हो जाती है। सभी प्रकार की औषधियां एवं फल-फूल से समृद्धि होती है। धान के खेतों में खूब फल लगे हैं, मक्खियां भी कम है और कीचड़ का भी नाम नहीं है। इस सुखद मास में न अधिक गर्मी है और न ही अधिक सर्दी है।
इस पर महाभारत के उद्योगपर्व के अध्याय 29, श्लोक 33 में कहा है कि
सप्तमाच्चापि दिवसादमावास्या भविष्यति।
संग्रामो युज्यतां तस्यां तामाहुः शक्रदेवताम्।।
अर्थात् आज से सातवें दिन अमावस्या होगी, उसके देवता इन्द्र कहे गए हैं। उसी में युद्ध आरम्भ किया जाएगा। इसका अर्थ हुआ कि मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को श्रीकृष्ण हस्तिनापुर राजसभा में शान्तिदूत बन कर गए थे। परन्तु मौसलपर्व के अनुसार युद्ध वाले महीने में त्रयोदशी को अमावस्या थी। इस तरह श्रीकृष्ण ने कौरवों के सम्मुख कृष्ण पक्ष की सप्तमी को शान्ति प्रस्ताव रखा था।
अतः मार्गशीर्ष की अमावस्या को ही कुरुक्षेत्र भूमि पर महायुद्ध आरम्भ हुआ था और मूलतः उसी दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया था। इस वर्ष गीता जयंती अमावस्या 20 नवम्बर 2025 को है। इसी अमावस्या को सही मानना चाहिए। परन्तु अनेक जानकार गीता जयंती को मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को मानते हैं, इसलिए इसे मोक्षदा एकादशी भी कहा गया है। यह इस वर्ष एक दिसम्बर 2025 को होगी
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| Arth Prakash |
गीता उपदेश-मार्गशीर्ष की अमावस्या के उस दिन सूर्योदय के समय अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थान पर ले गए। वहां पर अर्जुन के विचलित होने की स्थिति, प्रश्न तथा उनके मोहपाश की स्थिति बड़ी दयनीय थी।
अर्जुन की ‘किमकर्त्तव्य विमूढम्’ की स्थिति को भांपते हुए अर्जुन के उपरोक्त एक प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण ने तीन तरफ से वार किया। श्रीकृष्ण ने त्रिविद्या के ज्ञान, कर्म और उपासना के गूढ़ रहस्य को समझाते हुए कर्म की महत्ता पर बल दिया। उन्होंने अर्जुन को ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग की धारा में प्रवाहित करते हुए कर्त्तव्य पालन का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि इस संसार में कर्म को करने और कर्त्तव्य के पालन से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नही है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि
न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नान वाप्तम वाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्त्तव्य कर्म करना शेष है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु मुझे अप्राप्य है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न ही प्राप्त करने की इच्छा है, फिर भी मैं निरंतर कर्म में लगा रहता हूँ। पार्थ ! ज्ञानी मनुष्य अनासक्त भाव से लोक-संग्रह के लिए कर्म करते हैं और वह तुम्हें भी करने चाहिए।
गीता का यह रहस्य वर्तमान में प्राप्त श्रीमद्भागवत के 18 अध्यायों में दिए 700 श्लोकों में सम्मिलित है। परन्तु महाभारत में गीता उपदेश को मात्र 70 श्लोकों में दिया हुआ है, जिसे मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में वर्णित करने का प्रयास किया है। श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह वार्तालाप मात्र अढ़ाई घड़ी अर्थात् लगभग एक घंटे का हुआ था। श्रीकृष्ण और अर्जुन के परस्पर इसी संवाद को गीता उपदेश कहा गया है।
विराटरूप-
गीता उपदेश के दौरान योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्त्तव्यवादी बनने और उनके संस्कारों को चित्त पर नहीं पड़ने देने का सूत्र दिया। उनके ज्ञान, कर्म और उपासना के संदेश के पश्चात् भी जब श्रीकृष्ण को लगा कि अर्जुन अभी संशय में घिरा है, तब उन्होंने योग का सहारा लिया और युद्धभूमि में ही समाधिस्थ हो गए। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा को अपनी आत्मिक शक्ति के साथ संयोग करवाया। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा से मेल करते हुए प्राण की गति के रेचक को कुम्भक में परिणत कर दिया। उन्होंने अपने सभी दस प्राणों को मन से मिलाप कर परमात्मा के साथ एक सूत्र में पिरो दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आत्मा का अर्जुन की आत्मा से मिलन हुआ और आत्मा जागृत होने लगी।
इससे अर्जुन की अन्तरात्मा अति हर्ष से भर गई और उन्हें दिव्य दृश्य दिखाई देने लगे। अर्जुन को जैसे ब्रह्मांड में अग्नि प्रदीप्त हो रही है, समुद्र स्थिर हो गया, वायु की गति का आभास होने लगा तथा जल तेज प्रवाह में चलता दिखाई दे रहा था। प्रकृति का चक्र भौतिक पिण्डों में गति कर रहा था। ईश्वर के आंगन में जीवन की गति का चक्र चलता दिखाई देने लगा था। इसमें कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा था तो कोई जन्म ले रहा था। इस प्रकार दोनों सेनाएं मृत्यु के आंगन में विराजमान दिखाई दे रही थीं। श्रीकृष्ण का यह आत्मिक मेल और भावों का अनूठा संचार था। इससे अर्जुन की बुद्धि निर्मलता को प्राप्त हो गई और वह ईश्वर के यर्थाथ स्वरूप के दर्शन कर पाये।यही विराटरूप भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप कहलाया था, जो मात्र योग की उत्कृष्ठता से ही सम्भव हुआ।
अतः श्रीकृष्ण और उनके संदेश की व्यवहारिकता को समझने के लिए केवल योग ही एकमात्र साधन है। व्यक्ति, योग को अपनाकर ही गीता के रहस्यों को जानने में सक्षम हो सकता है। यही गीता का मूल रूप है, जिससे मानव स्वयं और समाज का उत्थान करने में समर्थ होगा।
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